????कुआं के अंदर की गुफा का रहस्य अभी भी अनसुलझा ।
????टीले के नीचे किला की एक मंजिल सुरक्षित होने की संभावना
जगम्मनपुर ,जालौन ।जनपद के प्रसिद्ध कर्ण देवी मंदिर के आसपास व नीचे किले के खंडहर में अनसुलझे रहस्यों का जाल बिखरा पड़ा है। स्थानीय लोगों के द्वारा किये गए तमाम प्रयासों के बाद इन रहस्यों की गुलथी नही सुलझाई जा सकी है।
जनपद जालौन के जिला मुख्यालय उरई से ६५ किमी उत्तर पश्चिम में जगम्मनपुर के समीप स्थित कर्ण देवी मन्दिर है। मान्यता है की आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व यहां कर्णदेव नाम के पराक्रमी राजा राज्य करते थे महाभारत कालीन कर्ण के समान उनकी भी दानवीरता की अनेक कहानियां प्रचलित है। कुछ बताते हैं कि राजा कर्णदेव प्रतिदिन सवा मन अर्थात 50 किलो सोना गरीबों व जरूरतमंदों में दान किया करते थे। राजा कर्णदेव की ख्याति सुनकर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य कर्णदेव के द्वारा दान करने की सच्चाई जानने के लिए वेश बदलकर कनार राज्य में एक सैनिक के रूप में आए और बहुत समय तक राजा के अंगरक्षक के रूप में यहीं प्रवास किया। उन्होंने राजा कर्ण देव को देवी के समक्ष तेल से भरे उबलते कढ़ाव में उतरकर प्राणोत्कर्ष करते एवं तृप्त व प्रसन्न होने पर देवी के द्वारा राजा कर्णदेव को जीवित करने तथा सवा मन स्वर्ण राजा को दे देने की घटना को आंखों से देखा इससे प्रभावित होकर राजा विक्रमादित्य ने भी देवी की आराधना की और प्रसन्न कर देवी को अपने साथ ले जाने लगे तब राजा कर्ण देव ने उनके चरण पकड़ दिए और यही रहने की प्रार्थना की तब देवी जी ने दोनों भक्त राजाओं का मान रखते हुए दो भागों में विभक्त होना स्वीकार कर चरण से लेकर कमर तक कर्ण देवी के रूप में कनार राज्य के दुर्ग में बने मंदिर में स्थापित हो पूजित हुई और कमर से ऊपर का भाग राजा विक्रमादित्य के साथ जा उज्जैन में हरसिद्धि माता के रूप में प्रतिष्ठित हुई ।
मौजूद किला के खंडहरों में प्राचीन घटनाक्रम की अनेक अनजानी गुत्थियां सुलझ ही नहीं है वही खंडार के बीच अनेक रहस्यों से भरे स्थल पर्यटकों में रोमांच पैदा करने के लिए पर्याप्त हैं ।
प्राचीन काल में कनार विशाल राज्य था । इटावा से बांदा तक फैले इस विशाल साम्राज्य का किला भी विशाल था विभिन्न पुराणों में बदले हुए नामों से इस राज्य के गौरवशाली इतिहास का वर्णन है आर्य एवं अनार्यों के युद्ध में वशिष्ठ तथा विश्वामित्र एवं तत्कालीन राजा सुदास के भीषण युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी भी यह प्राचीन विशाल दुर्ग है। कान्यकुव्जाधिपति राजा जयचन्द्र कनाराधिपति महाराजा विशोकदेव के साथ अपनी बहिन देवकला का विवाह कर गौरवान्वित हुए थे। मुगल आतताई बाबर से युद्ध में तोपों के निष्ठुर गोलों की मार से आहत हो टूटने का दर्द सहने वाला यह किला भी रहा है । यह सब लिखी पढी व पूर्वजों से सुनी हुई बाते हैं इन पर विश्वास करना ना करना व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है किंतु यहां अभी भी ऐसी चमत्कारिक वस्तुएं है जो कनार के वैभवशाली साम्राज्य होने को प्रमाणित हैं । आज से 50 वर्ष पूर्व इस खंडहर किला पर जाने की कोई हिम्मत नहीं करता था । तमाम भूत-प्रेतों देवी देवताओं साधु संतो के इन खंडहरों में निवास करने के किस्से प्रचलित थे किंतु एक नाबालिक संत बाबा बजरंग दास ने इन खंडहरों में अपना आश्रम बनाया व खंडहर में स्थित देवी के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाकर विशाल यज्ञ करवाया एवम मौजूद कुआं की सफाई कराई गई तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रचलित कथाओं की पुष्टि करते हुए लोहे का विशाल टूटा फूटा कढ़ाव ,दो विशाल शिव लिंग ,अनेक खंडित मूर्तियों सहित तमाम प्राचीन युग का सामान मिला , कुआं में नीचे उतरने पर अंदर ही अंदर एक दरवाजा दिखाई दिया जो किसी अनजानी मंजिल की ओर जाता प्रतीत हो रहा था। कुछ साहसी युवको ने प्रकाश व्यवस्था करके 30 - 35 मीटर अंदर तक जाने की हिम्मत जुटाई लेकिन हजारों वर्ष पुरानी तथा अनिश्चित मंजिल की ओर जा रही सुरंग में भयवश इन साहसी युवकों को भी वापस होना पड़ा। कुछ बर्ष बाद तत्कालीन संत बाबा बजरंगदास ने कुएं के अंदर के इस गुप्त मार्ग के प्रवेश द्वार को बंद करवा दिया। इसी प्रकार मिट्टी में दबे काले पत्थरों के विशाल वर्तन अनेक प्रकार की मूर्तियां तथा किला की दो से तीन मीटर चौड़ी दीवाल आश्चर्य में डाल देती है। बहुत गहराई से खोजने पर यह स्थान पुराणों में वर्णित स्थल के होने की पुष्टि करता है तो इतिहास में अपने गौरवशाली राजतंत्र का केंद्र होने को भी प्रमाणित करता है। किसी सक्षम जनप्रतिनिधि की पहल पर यदि पुरातत्व विभाग इस प्राचीन कनार राज्य के दुर्ग से कुछ खंगालने का प्रयास करें तो निश्चय ही यहां के बारे में अनेक आश्चर्य जनक अविश्वसनीय तथ्य उजागर होगे।