कालपी

मई 1858 में कालपी में हुए महायुद्ध में यमुना की जल धारा क्रांतिवीरों के लहू से लाल हो गई थी

कालपी(जालौन) क्रांतिकारियों ने कालपी के चौरासी गुम्बद से यमुना तट तक खाइंया खोद कर सब मार्ग काट दिए। यमुना के इधर क्रांतिकारी तो दूसरी ओर गुलौली में अंग्रेज तैयार थे।ह्यूरोज ने 22मई को 20घंटे लगातार कालपी दुर्ग पर गोले बरसाये क्रांतिकारियों की तैयारी कम थी पर हिम्मत नहीं। भारी संघर्ष के बाद 23 मई 1858की प्रातः ब्रिटिश सेना कालपी में घुस आई।इस युद्ध में भारी संख्या में क्रांतिवीर शहीद हुए कालपी में यमुना की धारा रक्त से लाल हो गई और दुर्ग पर कब्जा हो गया।
कब्जे के बाद वहां से अंग्रेजों को नाना साहब और लक्ष्मीबाई का महत्वपूर्ण पत्र व्यवहार 6 हाथी कई तोपें गोले और 500 बैरल बारुद ब्रासगन मोट्रार ब्रास पाउडर 9000कारतूस और भारी मात्रा में पारम्परिक शस्त्र मिले थे।
इतिहासकारों के अनुसार 1857के अप्रैल माह में अंग्रेजों से पराजित होकर लक्ष्मी बाई झांसी से कालपी आ गईं थीं।ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज सेना उनके पीछे लगी थी उन्हें रोकने के लिए कोंच में मोर्चा लगाया गया और भीषण युद्ध शुरू हो गया जहां उस जमाने में बहादुर और चालाक माने जाने ‌वाले कालपी के नामचीन बंदूकचियों को भी बुलाया गया कोंच में हुए भीषण संघर्ष में 500क्रांतिकारी बलिदान हुए । इसके बाद सब लौटकर फिर कालपी आ गए जहां नाना साहब ने अब निर्णायक संघर्ष की तैयारी प्रारंभ कर दी।
आपको बताते चलें कि 1857 का स्वाधीनता संग्राम देश के अधिकांश भागों में लड़ा गया था पर उत्तर प्रदेश में इसके संचालन का मुख्य केन्द्र कालपी नगर था। यहां यमुना नदी की ऊंची कगार पर बने दुर्ग में इस क्रांति का नियंत्रण कक्ष था।दुर्ग के एक भूमिगत कक्ष में हथियार बनाए जाते थे कम्पनियों का कोषागार भी यहीं था । नाना साहब से मंत्रणा के लिए रानी लक्ष्मीबाई कुंवर सिंह तथा अन्य लोग यहां तथा नगर के एक और पौराणिक मन्दिर पाहूलाल देवालय आते थे।
उन दिनों तात्या टोपे नाना साहब के सेनापति थे उन्होंने बुन्देलखण्ड के सब राजे राजाओं को पत्र भेजकर अपनी सेनाएं कालपी भेजने का आग्रह किया । इस पत्र में लिखा कि इस संघर्ष का उद्देश्य किसी को गद्दी पर बैठाना नहीं अपितु विभिन्न राजाओं के क्षेत्र को अंग्रेजों से बचाना है।बाबा देवगिरी को यह पत्र लेकर सब जगह भेजा गया था।
धीरे-धीरे सेनाएं एकत्र होने लगी जालौन के तहसीलदार नारायण राव ने कार्यालय तथा मुहम्मद इशहाक ने भोजन आदि की व्यवस्था संभाली ।नाना साहब के भाई बालासाहब तथा भतीजे राव साहब भी आ गये और कालपी के वीर योद्धाओं के साथ सभी ने यमुना का जल हाथ में लेकर अंतिम सांस तक संघर्ष कर मात्रभूमि की रक्षा का संकल्प लिया।दुर्ग में तोपों की ढलाई होने लगी जालौन से आए कामगारों ने स्थानीय शोरा कोयला तथा मिर्जापुर से प्राप्त गन्धक से बारूद व बम बनाए।जिले में अंग्रेजों का प्रवेश रोकने के लिए यमुना में चलने वाली लगभग 200 नौकाओं का नियंत्रण क्रांतिकारियों ने अपने हाथ में ले लिया।अब कालपी की रणभूमि में 10,000सैनिक तथा एक दर्जन तोपें युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार थीं बताते चलें कि कालपी के लोग इन क्रांतिकारियों को बहुत सम्मान देते थे हर प्रकार का सहयोग देते थे इन्हें बहुत मानते थे और स्वेच्छा से उनका स्वागत सत्कार करते थे यहां तक कि उन्हें अपनी बैलगाड़ियां देते थे और बगैर जान की परवाह किए डाकियों से अंग्रेजी डाक छीनकर दुर्ग में पंहुचा देते थे।
अंग्रेजों की इच्छा थी कि इस लड़ाई के महत्वपूर्ण नेताओं को जिंदा य मुर्दा पकड़ लें पर कालपी के योद्धा ढाल बनकर अंग्रेजों सेना की तोपों के आगे खड़े हो गए और दुर्ग में बने गुप्त मार्गों से नाना साहब तात्या टोपे रानी लक्ष्मीबाई और तमाम प्रमुख वीरों को यहां से सुरक्षित निकाल दिया।आज भी वह दुर्ग जर्जर अवस्था में उस युद्ध की याद दिलाता है । दुर्ग की दीवारें नौ फिट मोटी तथा छत गुम्बद आकार में है। तोपों की मार से इसका अधिकांश भाग ढह गया था पर केन्द्रीय कक्ष किलाघाट मन्दिर तथा यमुना तक जाने वाली सीढ़ियां अभी बाकी हैं।

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